1 दिसंबर 2024 – भारत में पत्रकारिता का इतिहास स्वतंत्रता संग्राम से गहरे जुड़ा हुआ है। बुलेटिन, अखबार और छापाखाना भले ही अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए हों, लेकिन इनका इस्तेमाल हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने संघर्ष को तेज़ करने और जन जागरूकता फैलाने के लिए किया। महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, सुभाष चंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू जैसे महान नेता अपने लेखन और पत्रिकाओं के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम की दिशा तय करते थे, जिनमें से कई पत्र-पत्रिकाएं अब हमारे इतिहास का अहम हिस्सा बन चुकी हैं। इसके लिए इन्हें जेल भी जाना पड़ा। भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारी नेताओं ने भी लेखनी को हथियार बनाया और सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओं को अंग्रेजों द्वारा जब्त किया गया।
20वीं सदी के प्रारंभिक दशकों में अंग्रेजों द्वारा लागू किया गया रॉलेट एक्ट अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाला था, और इसका विरोध देश में बड़े पैमाने पर हुआ। इसका उद्देश्य यह दिखाना था कि पत्रकारिता और लेखन का इतिहास स्वतंत्रता संग्राम का ही हिस्सा है।
स्वतंत्रता के बाद भी, जब भी सरकारों ने पत्रकारिता पर बंदिशें लगाने की कोशिश की, विरोध के स्वर गूंजे। उदाहरण के तौर पर, पंडित नेहरू के दामाद फिरोज गांधी ने संसद में एक विधेयक पेश किया जब सरकार ने पत्रकारिता पर दबाव डालने की कोशिश की। बाद में राजीव गांधी सरकार के दौर में भी ऐसी कोशिशें हुईं, लेकिन इनका विरोध किया गया और सरकार को पीछे हटना पड़ा।
इमरजेंसी के दौरान सरकार ने कानूनी रूप से सेंसरशिप लागू की थी। शुरुआत में इसका विरोध हुआ, लेकिन गिरफ्तारियों के बाद अखबारों और पत्रिकाओं को आदेश मानने पर मजबूर होना पड़ा। इमरजेंसी के बाद, जैसे ही स्थितियां सामान्य हुईं, आज़ादी की हवा फिर से बहने लगी।
वरिष्ठ पत्रकार अरुण सिन्हा की संपादित पुस्तक “फ्रीडम्स मिडनाइट” में इन सभी घटनाओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। इस पुस्तक में उन्होंने बताया है कि इमरजेंसी के दौरान रांची से प्रकाशित होने वाली न्यू रिपब्लिक नामक पत्रिका पर सरकार ने डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स के तहत मुकदमा किया था। इस तरह की आलोचना सरकार या निजी क्षेत्र पर करना मुश्किल था, लेकिन आजकल दोनों के खिलाफ आलोचना करना लगभग असंभव हो गया है।
अरुण सिन्हा ने अपनी किताब में यह भी कहा है कि लोकतंत्र में मीडिया का कार्य दोनों तरफ सूचना का प्रवाह सुनिश्चित करना होना चाहिए—सरकार से जनता तक (जी2पी) और जनता से सरकार तक (पी2जी)। दुर्भाग्यवश, आज पी2जी प्रवाह लगभग बंद कर दिया गया है। वरिष्ठ पत्रकार अरुण शौरी के अनुसार, इस किताब में वर्णित घटनाओं और विचारों को पढ़ना हर किसी के लिए जरूरी है, ताकि हम समझ सकें कि मीडिया और पत्रकारिता की स्वतंत्रता को आज के समय में किस तरह से खतरा हो सकता है।