7 दिसंबर 2024 – रंग-सम्राट हबीब तनवीर की जन्मशती के अवसर पर, टैगोर विश्व कला-संस्कृति केंद्र, भोपाल ने अपनी पत्रिका रंग संवाद का विशेष अंक उनके पर केंद्रित किया है। इस अंक में हबीब साहब पर इतनी विस्तृत सामग्री दी गई है कि पत्रिका के पन्ने पलटते हुए हर लेख में उनके बारे में कुछ नया और अनोखा जानने को मिलता है। जिन लेखों ने विशेष ध्यान आकर्षित किया, उनमें अशोक मिश्र, ध्रुव शुक्ल, राजेश जोशी, आलोक चटर्जी, भास्कर चंदावरकर, राजकमल नायक, राहुल रस्तोगी, हेमंत देवलेकर, और दिनेश लोहानी के लेख शामिल हैं। इन लेखों में हबीब साहब की रंग दृष्टि को बेहतरीन तरीके से समझाने की कोशिश की गई है।
पत्रिका का पहला लेख हबीब साहब की रंग-जीवन यात्रा पर है, जिसे उनकी आत्मकथा के रूप में भी देखा जा सकता है। मोनिका मिश्र तनवीर का नेपथ्य ही बन गया नियति और नगीन तनवीर के साथ हुई बातचीत भी हबीब साहब के बारे में कई अनजानी बातें उजागर करती है।
पत्रिका में एकमात्र कविता कला समीक्षक और कवि राजेश गनोदवाले की है, जो अपनी विशिष्ट विषयवस्तु के कारण ध्यान आकर्षित करती है। कविता में नया थिएटर के निर्माण में छत्तीसगढ़ के गुमनाम गांवों से आए गायकों, वादकों और अभिनेताओं के योगदान को खूबसूरती से व्यक्त किया गया है। कविता की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं: “न थे किसी घराने से ये लोग/और न ली थी कभी तालीम कोई/देव-गन्धर्व थे सही मायनों में/आए इधर-उधर से/और समा गये हबीब तनवीर में/बन गए ‘नया थिएटर’ की ज़रुरी आवाज़।” इस कविता में वे कलाकारों का सम्मान करते हैं जिनके योगदान से नया थिएटर की धारा गढ़ी गई।
रामप्रकाश त्रिपाठी ने अपने लेख में हबीब साहब के रंगलोक, उनके नाटक की योजना, स्क्रिप्ट पर चिंतन, और प्रस्तुति से जुड़ी उनकी चिंता को प्रभावी ढंग से उजागर किया है। वे लिखते हैं, “किसी भी नाटक के मंचन से पहले उन्हें देखना मेरे लिए अविश्वसनीय अनुभव था। वे इतने घबराए हुए होते थे जैसे नौसिखिया निर्देशक हों। उनका तनाव, झुंझलाहट और प्रस्तुति को लेकर उनकी आशंकाएँ चकित करती थीं।”
सारंग उपाध्याय के लेख में हबीब साहब के कला-कर्म की गहराई को समझने की खूबसूरत कोशिश की गई है। वे लिखते हैं, “आगरा बाजार का पहला मंचन जब दिल्ली में हुआ, तो नाटक समाप्त होने के बाद हबीब साहब मंच पर हाथ जोड़े खड़े थे। तालियों की गड़गड़ाहट में वे खुद को ढूंढ़ते नजर आ रहे थे, मानो जीवन के बाजार में संघर्ष करते हुए किसी फरिश्ते की तरह खड़े हों।”
संतोष चौबे, पत्रिका के प्रधान संपादक, हबीब साहब के रंग-संगीत को उनके नाटकों का आकर्षक पक्ष मानते हैं। वे लिखते हैं, “लोक गीतों, धुनों और नृत्य संरचनाओं पर उनका गहरा काम था। निश्चित रूप से उनके रंग-संगीत का अलग से दस्तावेज़न होना चाहिए।” वे हबीब साहब की रंग भाषा पर कहते हैं, “हबीब साहब की रंग भाषा लोक-भाषा और मानक भाषाओं के बीच का एक जीवंत पुल बनी, जो नाट्य शास्त्र के लोकधर्मी रंगधारा की वास्तविकता से जुड़ी हुई थी।”
पत्रिका में हबीब साहब की छोटी बेटी एना का आत्मकथ्य, उनकी शायरी, नाटकों का संगीत और उनके द्वारा निर्देशित नाटकों की सूची भी शामिल है। यह अंक भारतीय रंगमंच के एक महत्वपूर्ण दौर की कहानी कहता है, और संतोष चौबे तथा विनय उपाध्याय के परिश्रम से यह दस्तावेज़ आकार ले सका है।