सोनाली भाटी/जालौर 28 नवम्बर 2024 : भारत की संस्कृति और परंपराएं जितनी पुरानी हैं, उतनी ही साफा बांधने की परंपरा सैकड़ों साल से चली आ रही है. प्राचीन काल में राजा-महाराजा मुकुट पहनते थे. गांवों में आज भी लोग सिर पर साफा बांधकर रखते हैं. मारवाड़ की आन, बान, शान है साफा, सिरमौर है साफा, सभी तरह के धार्मिक, वैवाहिक उत्सवों में साफे को शान का प्रतीक माना जाता है. आजकल इस शादी के सीजन में साफा एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है.
राजस्थान के जालौर जिले में एक परिवार जो परंपरागत तरीके से तीन पीढ़ियों से साफे बांधने का काम करते आ रहे हैं. साफे बांधने की इस कला से उनकी आजीविका भी चलती है. जालौर के रहने वाले अरविंद सेन जो कि साफा बांधने की कला में बहुत ही अव्वल है मात्र 20 सेकंड के अंदर वह साफा बांध लेते हैं और 1 घंटे में सैकड़ों साफे बांधने का हुनर रखते हैं. उनकी इस कला के कारण उन्हें जिला स्तर पर भी सम्मानित किया हुआ है. अरविंद सेन बताते हैं कि उन्होंने यह कला उनके दादा स्व. जेठाराम सेन से सीखी थी और उनके पिताजी और चाचा जी भी साफा बांधने का काम आज भी करते हैं. वह लगातार तीन पीढ़ियों से साफे बांधते आ रहे हैं. आज वह कई तरीके के साफे बांध लेते हैं, जैसे- सर्व प्रसिद्ध जोधपुरी साफा ,जैसलमेरी साफा, गोल पगड़ी, मेवाड़ी साफा.
जाने क्या है इस शख्स के साफे बांधने की खासियत
उन्होंने बताया कि लगभग 15 साल से वह साफा बांध रहे हैं और उन्होंने यह कला काफी छोटी उम्र में ही अपने दादाजी से प्राप्त कर ली थी और फिर उनके साथ-साथ शादी-विवाह और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में साफे बांधने का ऑर्डर भी लिया करते थे. तब अरविंद अपने दादाजी के साथ जाकर उनकी मदद किया करते थे. जालौर शहर के अधिकतर मंदिरों की मूर्तियों पर भी साफा बांधने का कार्य इस कलाकार को मिला हुआ है. जालौर शहर में घूमने आने वाले पर्यटक (फॉरेनर्स) को भी उन्होंने साफा पहनाया है. वर्तमान में काफी डिजाइन और वैरायटी के साफे युवाओं की पसंद बन चुके हैं उन सभी तरह के की डिजाइन और वैरायटी के साफे है अरविंद के पास उपलब्ध है.