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साधु-संतों को क्यों दी जाती है समाधि, दाह संस्कार नहीं? जानें रहस्य

13 फरवरी 2025 : भारतीय संस्कृति में साधु-संतों को मोक्ष और तपस्या का अद्वितीय प्रतीक माना जाता है. उनकी मृत्यु के पश्चात उन्हें साधारण व्यक्तियों की तरह दाह संस्कार नहीं दिया जाता बल्कि उन्हें समाधि में लीन किया जाता है. यह परंपरा अपने गर्भ में धार्मिक, आध्यात्मिक और सामाजिक कारणों का रहस्यमय संसार समेटे हुए है. शास्त्रों के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ मे सिर्फ जल ही था और सृष्टि के अंत मे सिर्फ जल ही बचेगा यानी जल ही अंतिम सत्य है.

धार्मिक दृष्टिकोण:
साधु-संतों को तपस्वी और पवित्र आत्माओं का दर्जा दिया जाता है. यह मान्यता है कि उनका शरीर पंचमहाभूतों की सीमाओं से परे होता है इसलिए उनके पार्थिव शरीर को अग्नि को समर्पित करने की बजाय समाधि में विश्राम दिया जाता है. भगवान श्रीराम ने सभी कार्यो से मुक्त होने के बाद हमेशा के लिए सरयू जल मे ही समाधी ली थी.

हिन्दू धर्म में जल को सबसे पवित्र माना जाता है. संपूर्ण शास्त्र विधियां, संस्कार, मंगल कार्य संध्यावंदन आदि जल के बगैर अधूरे हैं. जल के देवता वरुण हैं जो भगवान विष्णु का ही रुप माने जाते हैं. साधु-संत सांसारिक बंधनों और अहंकार से मुक्त होकर मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर होते हैं. उनके लिए मृत्यु मोक्ष का द्वार खोलती है. दाह संस्कार में शरीर को जलाकर समाप्त कर दिया जाता है जबकि समाधि में उनके अस्तित्व को सम्मानपूर्वक संजोया जाता है.

साधु-संतों का यह दृढ़ विश्वास होता है कि वे अपने कर्मों के बंधन से मुक्त हो चुके हैं. दाह संस्कार कर्मों के अंत का प्रतीक है जबकि साधु इस चक्र से पहले ही मुक्ति पा लेते हैं.

आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य
यह मान्यता है कि साधु-संतों की तपस्या और साधना से उनके शरीर में अद्भुत आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार होता है. इस ऊर्जा को पानी में विलीन होने दिया जाता है ताकि यह ब्रह्मांड में सकारात्मक स्पंदन पैदा कर सके. समाधि इस बात का प्रतीक है कि साधु-संत ने जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्ति (मोक्ष) प्राप्त कर ली है.

सामाजिक संदर्भ
साधु-संत अपना परिवार और सांसारिक जीवन त्यागकर वैराग्य का मार्ग अपनाते हैं. दाह संस्कार मुख्य रूप से परिवार और समाज से जुड़ा होता है जो साधुओं पर लागू नहीं होता. साधु का जीवन प्रकृति और ब्रह्मांड के साथ एकाकार होता है. उनका शरीर प्रकृति में बिना जलाए विलीन हो जाता है जो उनके प्रकृति प्रेम का प्रतीक है.

विभिन्न परंपराएं

  • कुछ साधु विशेषकर नागा साधु गंगा या अन्य पवित्र नदियों में जल समाधि लेते हैं.
  • कुछ साधु अपने शरीर को जंगल में छोड़ देते हैं जहां प्रकृति स्वयं इसे अपने आंचल में समा लेती है.
  • कई साधु उस स्थान पर समाधि लेते हैं जहां उन्होंने अपनी तपस्या की थी.

साधु-संतों का अंतिम संस्कार समाधि के रूप में करना उनके आध्यात्मिक स्तर, तपस्या और सांसारिक मोह-माया से मुक्ति का सम्मान है. साधु-संतों को समाधि देने की परंपरा हमें यह सिखाती है कि आत्मा अजर-अमर है और यह शरीर से परे जाकर ब्रह्मांड का अभिन्न अंग बन जाती है. यह परंपरा साधु-संतों की मोक्ष प्राप्ति और उनके जीवन की पवित्रता का प्रतीक है.

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