13 सितंबर 2025: भारत और पाकिस्तान के बीच 14 सितंबर, दुबई में होने वाला एशिया कप क्रिकेट मुकाबला खेल-कूद से कहीं आगे जाकर सियासत की बहस बन गया है. शिवसेना (UBT) के मुखपत्र सामना में 13 सितंबर के संपादकीय के तहत इसे “राष्ट्रद्रोह” तक कहकर तीखी निंदा की गई है.
संपादकीय का तर्क है कि पहलगाम हमले जैसी घटनाओं के जख्म अभी ताजा हैं और ऐसे हालात में पाकिस्तान के साथ खेलना देश के संवेदनशील भावनात्मक और राजनैतिक प्रश्नों को भड़काता है; इसलिए यह घटना केवल खेल का आयोजन नहीं, बल्कि राष्ट्रीय अस्मिता और प्राथमिकताओं पर बड़ा संकेतक है.
सुविधाजनक हिंदुत्व का कसा तंज
सामना ने लेख में आरोप लगाया है कि पीएम मोदी और उनके सरकार के अंदर “सुविधाजनक हिंदुत्व” और “सुविधाजनक राष्ट्रवाद” ने ऐसी नीति-निर्धारण को जन्म दिया है जहां भावनाएं चुनावी और आर्थिक लाभ के लिए इस्तेमाल हो रही हैं. संपादकीय के मुख्य बिंदु हैं- पहलगाम हमले में 26 नागरिकों की हत्या के दर्द का बार-बार ज़िक्र और उस घटना को अंजाम देने वाले तत्वों के प्रति गुस्सा. सरकार द्वारा अंतरराष्ट्रीय और ‘वैश्विक’ कारण बताकर मैच की अनुमति देना और जनता की भावनाओं को अनदेखा करना.
उन्होंने कहा कि क्रिकेट के जरिए बड़े आर्थिक सौदे और करोड़ों रुपये के कारोबार होते हैं, जिनके अंतिम लाभार्थी सत्ता-तंत्र में बैठे हैं. यहां संपादकीय ने कड़ा सवाल उठाया है: क्या खेल, नीति और न्याय की व्यापक प्राथमिकताओं से ऊपर रखकर केवल वित्तीय या कूटनीतिक हितों के नाम पर खेल को आगे बढ़ाया जा रहा है?
अमेरिका और चीन की भूमिकाओं का भी जिक्र
संपादकीय ने विस्तार से पीएम नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह काल के संदर्भ में भावनाओं और प्रवचन की बदलती प्रकृति पर तंज कसा है: तत्कालीन वायदों और घोषणाओं- जैसे ‘ऑपरेशन सिंदूर’ और पाकिस्तान को कड़ा सबक सिखाने की बात की सराहना और बाद में वही सरकार पाकिस्तान के साथ खेल-कूटनीति अपनाती दिखती है.
इसमें अमेरिका और चीन की भूमिकाओं का भी जिक्र है. कहा गया कि अंतरराष्ट्रीय दबाव और परिवेश ने घरेलू नारों और कट्टर घोषणाओं को वास्तविक धरातल पर परिवर्तित कर दिया. संपादकीय ने बालासाहेब ठाकरे के पुराने रुख का हवाला भी दिया और पूछा कि आज के ‘नकली हिंदुत्ववादी’ कहां हैं जो उन मूल भावनाओं का सम्मान करें.
जनता-भावना, नैतिक प्रश्न और निहितार्थ
समाप्त करते हुए संपादकीय ने सवाल उठाया कि क्या खेल की महत्ता संवेदना और न्याय से ऊपर ठहर सकती है; क्या क्रिकेट खेलना उन परिवारों के लिए अपमान नहीं है जिनके रिश्तेदार पहलगाम में मरे? लेख का तर्क साफ है कि आत्म-गौरव और सम्मान की भावनाएं इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे समाज के आधारभूत नैतिक ताने-बाने को सुरक्षित रखती हैं.
संपादकीय का निहितार्थ यह भी है कि यदि सरकार और खेल संस्थाएं सार्वजनिक भावनाओं को गंभीरता से नहीं लेंगी तो खेलों के माध्यम से बनने वाली ‘सौहार्द’ और ‘शांति’ की अवधारणा खोखली बन सकती है. अंततः सामना पाठक समुदाय से यही अपेक्षा करता है कि वे न सिर्फ़ खेल-रोमांच देखें बल्कि निर्णयों के राजनीतिक, नैतिक और मानवीय आयामों पर भी आवाज़ उठाएं.
