5 जून चंडीगढ़ :लोकसभा सीट पर कांग्रेस के मनीष तिवारी जीत गए हैं। भाजपा पिछली दो बार से यहां से जीत रही थी लेकिन पिछले कुछ वर्षों से भाजपा का ग्राफ शहर में गिरने लगा है। पहले मेयर की कुर्सी और अब सांसद की कुर्सी भाजपा के हाथ से खिसक गई है। अपने करियर का पहला चुनाव लड़े टंडन कांटे की टक्कर में हार गए हैं। इसमें कई कारण है।
मोदी और शाह की दूरी
इस बार संजय टंडन के लिए प्रचार करने न प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आए, न केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह। अगर दोनों में से कोई भी नेता आते तो स्थिति बदल सकती थी, क्योंकि हार का मार्जन बहुत कम है। अगर मोदी या शाह आते तो आसानी से इससे ज्यादा लोगों को प्रभावित कर सकते थे। 2019 में भी भाजपा कमजोर थी लेकिन प्रधानमंत्री की रैली के बाद चंडीगढ़ में हवा बदल गई थी और भाजपा ने जीत दर्ज की। 2014 में भी सांसद किरण खेर के पक्ष में प्रचार करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी पहुंचे थे।
किरण खेर से लोगों की नाराजगी
किरण खेर पिछले 10 साल से शहर की संसद हैं। उनके दूसरे कार्यकाल को लेकर लोगों में काफी नाराजगी है। पहले वह बीमारी की वजह से शहर से दूर रहीं। बीमारी ठीक होने के बाद भी उन्होंने लोगों से दूरी बनाकर रखी। जो वादे किए थे, उनमें से अधिकतर 10 साल में भी पूरे नहीं हुए। गांवों में सड़कें टूटी रहीं। इसकी वजह से लोगों में काफी नाराजगी थी। टंडन को इसका काफी नुकसान झेलना पड़ा।
किसान आंदोलन का असर
किसान आंदोलन की वजह से भाजपा को गांव में काफी नुकसान हुआ। गांवों के सिख वोटर्स ने भाजपा से दूरी बना ली थी। नाराजगी चुनावी प्रचार के दौरान भी दिखी, जब कई बार लोगों ने खुलकर भाजपा कार्यकर्ताओं के सामने अपना गुस्सा निकाला। इसकी वजह से सिख वोट भाजपा को नहीं मिले। भाजपा ने गांवों में बहुत मेहनत की लेकिन नतीजों में भी लोगों की नाराजगी दिखी।
अनिल मसीह फैक्टर
चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी मनीष तिवारी ने अनिल मसीह के नाम को खूब भुनाया। वह अपने ट्वीट और भाषणों में अनिल मसीह का खूब जिक्र करते थे। तिवारी ने संविधान बचाओ नारे को अनिल मसीह के साथ जोड़ दिया, जिसका प्रभाव शहरी वोटर्स पर पड़ा। चुनाव के दौरान जब-जब मसीह को लेकर सवाल पूछा जाता था तो भाजपा नेता असहज हो जाते थे। भाजपा इसका तोड़ नहीं निकाल पाई।
दो पावर सेंटर
चुनाव में दो पावर सेंटर थे। एक चुनाव प्रचार की रणनीति सेक्टर 18 स्थित संजय टंडन के घर और दूसरी सेक्टर 33 के भाजपा कार्यालय में बनती थी। पार्टी के अंदर नेताओं और कार्यकर्ताओं में अक्सर इस बात को लेकर चर्चा रही कि प्रदेश भाजपा के पदाधिकारी इस बार अच्छे से चुनाव को मैनेज नहीं कर पाए। कुछ नेताओं के व्यवहार को लेकर भी सवाल उठते रहे। शुरू में भाजपा जीत को लेकर कुछ ज्यादा ही आश्वस्त हो गई थी। हालांकि उन्हें बाद में समझ आ गया कि मुकाबला कड़ा है।